Sunday, March 13, 2016

Kora Kagaz..










कोरे कागज पे कुछ लफ्झ गिरे पडे हैं..
किसी के सहलानेका इंतेझार जैसे कर रहे हैं..

एक दुसरे से वो अन्जान है, या शायद है एक दुसरे से वो खफा..
न कोई दुरिया है उनमें,नाही कोई नजदिकीया..

वक़्त गुजरते,कुछ लफ्झ अल्फाझ बनके एक दूसरे में बंध जाते है..
कोरे कागझ पे कोई कविता खुद ही जैसे जनम लेती है..

कुछ लफ्झ लेकीन कोने में ही रह जाते है..
सब का साथ निभाते निभाते खुद अकेले ही बह जाते है..

कागज मगर बिखरे लफ्झोन्को समेटनेकी कोशिश में लगा रहता है..
हर लम्हा मन जैसे जहन में पले खयालों को सुलझानेमें उलझा रहता है..

न जाने क्यू ये कागज हमारे मन जैसे लगने लगता है..
जब हसते रोते पलोन्को खुद में समाने की कोशिश में, कभी कभी ये कोरा ही रह जाता है..